रविवार, 10 जून 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 115


भारतीय काव्यशास्त्र – 115
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में चर्चा की थी कि बोद्धा (श्रोता), व्यंग्य, वाच्य और प्रकरण आदि के वैशिष्ट्य के कारण भी तथाकथित काव्यदोष दोष न होकर या तो काव्य के गुण हो जाते हैं या न तो गुण होते हैं और न ही दोष। इस अंक में
कहीं-कहीं नीरस काव्य में श्रुतिकटुत्व आदि दोष न तो काव्यदोष होते हैं और न ही काव्य के गुण। इसके लिए मयूर कवि द्वारा विरचित सूर्यशतकम् का निम्नलिखित श्लोक काव्यप्रकाश में उद्धृत किया गया है-
शीर्णघ्राणाङ्घ्रिपाणीन् व्रणिभिरपघनैर्घर्घराव्यक्तघोषान्
दीर्घाघ्रातानघैघैः पुनरपि  घटयत्येक  उल्लाघयन् यः।
घर्मांशोस्तस्य वोन्तर्द्रिगुणघनघृणानिघ्ननिर्विघ्नवृत्ते-
र्दत्तार्घाः सिद्धसंघैर्विदधतु घृणयः  शीघ्रमंहोविघातम्।।
अर्थात् अपने पाप समूहों से कुष्ठरोगियों के नाक, हाथ और पैर गल जाते हैं और उनपर घाव बने रहते हैं, जिसके कारण उनकी नाक चौड़ी हो जाती है, बोलने में घरघराहट होती है और इससे उनकी बात अस्पष्ट हो जाती है। सूर्य की किरणें, जिन्हें सिद्ध लोग अर्घ्य देते हैं, उनके गले अंगों का कायाकल्प कर उन्हें नया कर देती हैं। सूर्य की वे किरणें आपके सम्पूर्ण पाप समूहों का नाश करें।
यहाँ श्रुतिकटु वर्णों का बहुत ही खुलकर प्रयोग किया गया है। किन्तु किसी रस विशेष का वर्णन न होने से न तो यहाँ काव्यदोष है और न ही काव्य के गुण। लेकिन मुझे लगता है कि सूर्य की किरणों की प्रखरता, जो पाप-समूहों को विनष्ट कर देती हैं, व्यंजित करने के लिए कवि ने श्रुतिकटु वर्णों का प्रयोग किया है। अतएव यहाँ गुण मानना चाहिए।
इसी प्रकार जहाँ काव्य में श्लेष अलंकार का प्रयोग किया गया हो, वहाँ अप्रयुक्तत्व और निहतार्थ दोष काव्यदोष नहीं माने जाते हैं। जैसे निम्नलिखित श्लोक में भगवान विष्णु और शिव दोनों की श्लेष के माध्यम से स्तुति की गयी है-
येन ध्वस्तमनोभवेन बलिजित्कायः  पुरा स्त्रीकृतो
यश्चोद्वृत्तभुजंगहारवलयोगङ्गा  च  योSधारयत्।
यस्याहुः शशिमच्छिरोहर इति स्तुत्यं च नामामराः
पायात्स  स्वयमन्धकक्षयकरस्त्वां   सर्वदोमाधवः।।
अर्थात् (भगवान विष्णु के पक्ष में) जिस अजन्मा ने शकटासुर का वध किया, पहले जिन्होंने महाराज बलि को पराजित किया, मोहिनी रूप में अपने को स्त्री बनाया, मर्यादा का अतिक्रमण करनेवाले कालिय नाग का वध किया, जिसमें श्रुतियों का लय होता है, जिन्होंने गोवर्धन पर्वत और वाराह अवतार लेकर पृथ्वी को धारण किया, देवता लोग जिन्हें शशिमच्छिरोरुह (राहु का शिरोच्छेद करनेवाला) प्रशंसनीय नाम से पुकारते हैं और जिन्होंने अन्धकों (यदुवंशियों) का विनाश कर दिया, वे अजन्मा लक्ष्मीपति भगवान विष्णु आपकी रक्षा करें।
(शिव के पक्ष में) कामदेव का विनाश करनेवाले, त्रिपुरासुर के वध के समय भगवान विष्णु के शरीर को बाण के रूप में प्रयोग करनेवाले, महाभयानक सर्पों को हार और वलय के रूप में तथा चन्द्रमा को शिर पर धारण करनेवाले और अंधकासुर का वध करनेवाले उमापति भगवान शिव आपकी रक्षा करें, जिन्हें देवता लोग प्रेम से हर नाम से पुकारते हैं।  
     यहाँ शशिमत् और अन्धकक्षय पद विष्णु पक्ष में अप्रयुक्त और निहतार्थक हैं।
     सुरत काल के आरम्भ की बातों में द्वयर्थक पदों के प्रयोग में अश्लीलता दोष न होकर गुण बन जाती है, जैसे -
करिहस्तेन सम्बाधे प्रविश्यान्तर्विलोडिते।
उपसर्पन ध्वजः पुंसः साधनान्तर्विराजते।।
अर्थात् हाथी की सूँड़ों के द्वारा शत्रु की सेना के अन्दर घुसकर और अन्दर से विलोडित करन से योद्धा की ध्वजा उसके पीछे-पीछे चलती हुई शत्रु-सेना के बीच में विराजमान हो जाती है।
     यहाँ करिहस्त पद द्वयर्थक है - हाथी की सूँड़ और कामशास्त्र के अनुसार स्त्री की योनि को द्रवित करने के लिए तर्जनी, अनामिका और मध्यमा अंगुलियों को एक साथ मिलाकर स्त्री की योनि में प्रवेश कराया जाता है, उसे भी करिहस्त कहा गया है। इसी प्रकार ध्वज का अर्थ पताका और वीर्य होता है। यहाँ शास्त्रकार का कहना है कि सुरतकाल में आपसी बातचीत के दौरान द्वयर्थकता के कारण अश्लीलत्व दोष के स्थान पर गुण माना जाता है।
     इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में अश्लीलत्व दोष के जुगुप्सा आदि अन्य भेदों एवं अन्य दोषों के परिहार पर चर्चा की जाएगी।

7 टिप्‍पणियां:

  1. व्यंग वाच्य प्रकरण संग व्यापक ज्ञान के लिए सदा की भांति प्रणाम स्वीकार करें

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  2. ज्ञानवर्धक सुन्दर प्रस्तुति!

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  3. बार-बार पढ़ कर समझना अच्छा लगता है. सरलता से समझाने के लिए आभार..

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