शनिवार, 17 दिसंबर 2011

फ़ुरसत में ... मिली नसीहत, .. मुफ़्त में ?

फ़ुरसत में ... (अंक-85) 

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SDC11128_editedमनोज कुमार

imagesकिसी बड़े महान व्यक्ति ने कहा था, “नाम में क्या रखा है”। (किसने कहा, वह तो ठीक से याद नहीं, लेकिन यदि विद्वान और बुद्धिजीवी कहलाना है तो कोई नाम तो लेना ही पड़ेगा) । शायद शेक्सपिअर ने कहा है। (लेने को तो मैं, बापू, बुद्ध या शास्त्री का नाम भी ले सकता था। पर यह कुछ इंडियन टाइप उक्ति हो जाती। फॉरेन टाइप उक्ति में वेट अधिक होता है, एक मार्केट वैल्यू भी होती है उसकी। ... और कौन वेरिफ़ाई करने जा रहा है कि शेक्सपियर ने कहा था या नहीं।) वैसे भी तुलसी, रहीम, प्रसाद,दिनकर को कोट करना ‘आउट ऑफ फैशन-सा’ हो गया है।

ख़ैर बात नाम की हो रही थी। जिस किसी भी विद्वान ने कहा हो, उनके समय में और आज के समय में बदलाव तो आ ही चुका है। एक नाम होता है और एक उपनाम। तब जो टी.एस. इलियट लिखते थे, तो नाम से अगर दुनिया जाने, न जाने, इलियट से जगत प्रसिद्ध तो हो ही गए, ना! विलियम को जाने न जाने शेक्सपियर को दुनिया जान गई, न! इसलिए कह दिया –  नाम में क्या रखा है?

पर, आज इक्कीसवीं सदी के इंडिया में उपनाम ने काफ़ी झमेला खड़ा कर रखा है। यहाँ सारी पहचान, लगता है, उसी के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। एक सप्ताह पहले अपने गृह प्रान्त गया था। एक ज़मीन ख़रीदने की बात चल रही थी। कचहरी के बाबू ने मुझसे पूछ दिया, “आपका नाम?”

मैंने कहा, “मनोज कुमार।”

उन्हें संतोष नहीं हुआ, पूछा - “आगे ..”

मैंने कहा, “कुछ नहीं।”

वे फिर बोले, “कुछ तो होगा न ..?”

मैंने फिर कहा, “यही, और इतना ही है।”

वे बोले, “पर, नाम तो आपको पूरा बताना चाहिए।”

मैंने कहा, “पूरा ही बताया है।”

वे खीज गए, “अरे भाई! शर्मा, वर्मा, राय, प्रसाद, ... कुछ तो होगा ... सरनेम।”

मैंने समझाया, “भाई साहब! मेरा नाम तो मनोज कुमार ही है --- और वैसे भी – उपनाम में क्या रखा है?”

उन सज्जन ने ऐसी घूरती नज़र मुझपर डाली – जैसे वे रुद्र हों और अभी मेरी दुनिया भस्म कर देंगे।

तब मुझे लगा कि शायद इनके लिए उपनाम में बहुत कुछ रखा है।

इंसानी फ़ितरत ही यही है,  – वह नाम कमाए न कमाए, उपनाम गँवाने से बहुत डरता है। यह हमारी कमज़ोरी है। इंसान आज इतना कमज़ोर हो गया है कि छोटी-छोटी चीज़ों से डर जाता है और बहादुर भी इतना है कि भगवान से नहीं डरता।

हाँ, -- मेरे अपने तर्क हैं। पर, आप मानने न मानने के लिए स्वतंत्र हैं। मर्ज़ी आपकी। पर, उससे पहले एक बार मेरी बातों पर ग़ौर फ़रमा के देखिएगा। आपने कभी किसी साहित्य, ग्रंथ आदि में किसी भगवान का उपनाम देखा है – राम प्रसाद, शंकर सिंह, विष्णु झा, सीता वर्मा, लक्ष्मी पांडे, -- हनुमान राम, --- नहीं न। और, वही इंसान, उसी भगवान की बनाई दुनियाँ को उपनाम लगाकर जाति आदि में बाँटने से नहीं डरता। तभी तो मैंने कहा था, छोटी-छोटी बातों से डरने वाला इंसान भगवान से भी नहीं डरता। तभी तो उन सज्जन ने अपने आग्नेय नेत्रों से मुझे इसलिए भस्म कर देना चाहा, क्योंकि उनके बनाए खाँचों के किस फ़्रेम में मैं फिट बैठूंगा – वे निर्धारित नहीं कर पा रहे थे।

ऐसे लोगों को पता नहीं किस शिक्षक ने शिक्षा दी। मुझे अपनी लाल आंखों से घूरकर नसीहत दे रहे थे कि तू अपने नाम के अंत में उपनाम लगा ले – वरना तेरा काम तो अटका ही अटका। अगर आपके नाम के अनुरूप दफ़्तर का माहौल है – तो आपका काम झट से हुआ समझिए। अगर माहौल विरोधी उपनाम वाला है – तो मामला रिजेक्टेड! पर, मेरे जैसे थर्ड ग्रेड की कैटेगरी वाले की हालत तो बद से बदतर हो जाती है। जिनके उपनाम ही न हों, उनकी तो फाइल न आगे बढ़ती है और न ही बंद होती है। उसकी उठा-पटक होती रहती है – कभी इस पाले में तो कभी उस पाले में।

तीन दिनों की कोर्ट-कचहरी की भाग-दौड़ से कुछ हासिल हुआ हो या नहीं, इतनी तो सीख मुफ्त में लेकर ही लौटा – कि उपनाम में बहुत कुछ रखा है।

पुनश्च : हम इक्कीसवीं सदी में पहुंच गए हैं। दुनिया कहां की कहां पहुंच गई है! हमलोग जहां थे, वहीं स्थिर हैं। लगता है, हमलोग एक्सरसाईज़ करने वाली साइकिल पर सवार होकर पैडल मार रहे हैं, चक्का भी तेज़ी से घूम रहा है, लेकिन साइकिल जस-की-तस खड़ी है।

33 टिप्‍पणियां:

  1. 'जाति न पूछो साधु की' उसने पढ़ा नहीं.....वैसे इसके फायदे और नुकसान दोनों हैं पर भले लोग यह सब नहीं देखते !

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  2. सही कहा साहब मेरे साथ भी कई बार हुआ जब भी नाम संतोष कुमार बताया है तो पूछते हैं की आगे क्या है !

    मगर हमें क्या हमने भी कसम खा ली है, हम नहीं सुधरेंगे !

    सार्थक पोस्ट !
    आभार !!

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  3. नाम में नहीं, जाति के नाम पर व्यक्तित्व मापने के नये मापदण्ड स्थापित हो गये हैं समाज में।

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  4. vaah mnoj bhai nirala andaaz e byaan hai jnaab kaa mubark ho bhai...... akhtar khan akela kota rajsthan

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  5. आपको कहना था - नाम तो है , उपनाम में जाति ढूंढकर क्या मिलेगा . मुझे भी ऐसे सवालों से कई बार गुजरना पड़ा है ...
    किसी भगवान् का उपनाम - हाहाहा , बहुत अच्छा उदाहरण है यह , फिर भी रूद्र समझेंगे नहीं

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  6. आप जमीन खरीद रहे हैं और जाति नहीं बता रहे, अब कठिनाई तो आएगी ही ना। जैसे आदिवासी की जमीन केवल आदिवासी ही खरीद सकता है। भारत में इस उपनाम के कई पहलू हैं। राम और कृष्‍ण ने उपनाम नहीं लगाया तो क्‍या? लोगों ने तो उन्‍हें अपने-अपने पाले में बांट ही रखा है। अब जाति तो वैज्ञानिक भी मानते हैं और सभी प्राणियों की फैमिली निश्चित करते हैं। यहाँ तक की वनस्‍पतियों तक की भी।

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  7. वाह, बिना सरनेम के जैसे नाम नाम न रहा.कब बदलेगी मानसिकता.सही कहा आपने, चक्का घूम रहा है मगर सायकल वहीं की वहीं खड़ी है.

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  8. मेरी अपनी मान्यता है कि नाम का कोई भी महत्व नही है, उपनाम के प्रयोग से ही हम अपने मूल से जुड़ते हैं. अपने जातिगत संस्कारों एवं पुरखों से मिले विरासत को अंगीकार करते हैं । इसे कोई माने या न माने उपनाम का महत्व आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना वर्ण-व्यवस्था के समय था । उपनाम को छिपाना नही चाहिए । ये बात जिगर है कि कोई बोले .या न बोले समाज में उपनाम छिपाने वाले की ओर उंगली उठ ही जाती है । इसमें उंगली उठाने वाले दोषी नही होते हैं क्योंकि वे पूर्वजों द्वारा स्थापित मान्यताओं को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं । इस पर गंभीर आत्म-मंथन की आवश्यकता है । इस तार्किक पोस्ट के लिए धन्यवाद ।

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  9. आप जिस साफ़गोई और सादगी से अपनी बात कहते हैं वो मुझे अच्छा लगता है.
    आपके आलेख को पढ़कर मुझे अपनी ही एक ग़ज़ल के निम्न मिसरे याद आ गए:-

    है ग्यारवाँ बारह ये इक्कीसवीं सदी का.
    लेकिन स्वभाव बदला अब तक न आदमी का.
    अगले बरस भी होंगी सबको बड़ी उम्मीदें,
    ज़ुल्मत में देखिएगा फिर ख़्वाब रोशनी का.
    *****
    ज़ुल्मत=अँधेरा

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  10. मनोज जी... यह बहुत ही सार्थक चर्चा है और सरल शब्दों में... निराला अंदाज़ है...
    वैसे सही है- नाम मे कुछ नहीं रखा लेकिन उपनाम मे बहुत कुछ है समाहित... जब तक जातिवाद आरक्षण रहेगा यह झमेला तो रहेगा ही...
    नाम का महत्व भी जल्दी ही स्थापित होगा... महिला आरक्षण बिल पास हो जाने दीजिये... तब सरोज वर्मा को साबित करना होगा की वो पुरुष है या महिला...

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  11. नाम के आगे क्या है नाम के पीछे क्या है ? बस यही रह गया आजकल , नाम को कोई पूछता ही नहीं |
    दक्षिण भारत के राज्यों में नाम के बाद नहीं नाम से पहले A से Z में कोनसा लैटर है ये मायने रखता है | लेकिन
    दक्षिण भारत में ये तो अच्छा है जाती-पाती का झंझंट नहीं रहता , कोई सरनेम नहीं लगता , बस पिता के
    नाम का पहला अक्षर लगा लिया , हो गया पूरा नाम .

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  12. सदियों से जीवन मरण का चक्र चल रहा है ! कुछ विशेष नहीं बदला है अभी तक..

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  13. हमारा डिमांड पूरा करने के लिए धन्यवाद.. एही पोस्टवा के बारे में हम आपको रिक्वेस्ट किये थे.. फुर्सत में पूरा किये आप हमरा अनुरोध... ई जो आप लिखे हैं ना कि कौन कहा है बोल दो कोइ भेरिफाई थोड़े करेगा.. ब्लॉग जगत में ऐसा लिखला के बाद लोग कहता है लिंक दीजिए.. एही से हम आपसे एक स्टेप आगे रहते हैं.. करेजा ठोंक के लिखते हैं और गाल बजाकर कह देते हैं कि लिंक मत मंगियेगा, कहीं पढ़े थे याद नहीं है..
    उपनाम नहीं होने का एगो फ़ायदा भी है.. कभी-कभी जहां जैसा माहौल हो वहाँ का लोग ओही समझ लेता है.. जाकी रही भावना जैसी.. सुनते हैं हम भी अरे, आप तो अपने आदमी हैं, आपसे क्या पर्दा.. बाद में कभी पता चलता है कि ऊ हमको अपने जैसा पहाड़ समझे थे, हम तो चूहा निकले..
    अंतिम में साइकिल से अलग कहानी बता दें कि कुछ लोग दारू के नशा में चांदनी रात में नौका विहार करने निकला.. नाव पर बैठा, बहुत देर तक भ्रमण करने के बाद लगा कि बहुत दूर आ गए हैं.. लौटेंगे कैसे.. लौट चले और जब किनारे आये तो सवेरा हो गया.. नशा भी खतम हो गया था.. देखे नाव बंधा ही हुआ था..बिना खोले चप्पू चला रहे थे ऊ लोग..
    अब ई कहानी का लिंक मत मंगियेगा..
    मज़ा आ गया!!

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  14. साँप तो कब का निकल गया लोग ,अब तक लकीर पीट रहे हैं

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  15. कम से कम साहित्यकार को इस उपनाम के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए और न ही किसी साहित्यकार,लेखक के परिचय में उसके वंश आदि का परिचय होना चाहिए।

    विभिन्न कालों में विभिन्न सामाजिक कुरितियों के विरुद्ध आन्दोलन चले...लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया। 20वीं शताब्दी के महानतम व्यक्तित्व ओशो ने जरुर इन बेड़ियों को तोड़ा और उनकी कोशिश रही कि कोई उन्हें किसी एक नाम से न जाने...शायद इसी लिए उन्होंने अपने नाम कई बार बदले।

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  16. नाम और उपनाम के चक्कर में मूल बात तो कहीं खो ही जाती है ......

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  17. Ab samaaj ki disha Bhi to upnaam par hi nirbhar hone lagi hai ... Vaise aaj ke sandarbh mein us vyakti ne theek hi salaah di hai ....

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  18. इंसानी फ़ितरत ही यही है, – वह नाम कमाए न कमाए, उपनाम गँवाने से बहुत डरता है। यह हमारी कमज़ोरी है। इंसान आज इतना कमज़ोर हो गया है कि छोटी-छोटी चीज़ों से डर जाता है और बहादुर भी इतना है कि भगवान से नहीं डरता।...

    अगर आपके नाम के अनुरूप दफ़्तर का माहौल है – तो आपका काम झट से हुआ समझिए। अगर माहौल विरोधी उपनाम वाला है – तो मामला रिजेक्टेड! पर, मेरे जैसे थर्ड ग्रेड की कैटेगरी वाले की हालत तो बद से बदतर हो जाती है। जिनके उपनाम ही न हों, उनकी तो फाइल न आगे बढ़ती है और न ही बंद होती है। उसकी उठा-पटक होती रहती है – कभी इस पाले में तो कभी उस पाले में।.......behtarin ..seedhe sade shabdon me behtain vyangya...aapke lekh ki ukt panktiyan mujhe behad pasand aayeein

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  19. बहुत सुंदर, सच्चाई से रुबरू कराता लेख

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  20. मेरी पहली टिप्पणी कहां खो गई।

    स्पैम में देखिए जी !!!

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  21. भगवान के नाम के साथ उपनाम .. :):) बढ़िया उदाहरण ..
    मैं भी नाम के मामले में आपकी कैटेगिरी में आती हूँ ... अच्छा है मुझे कोई ज़मीन नहीं खरीदनी ..वरना पूरे नाम का झमेला रहता ...यदि उपनाम नहीं लगाएं तो क्या परिवार के संस्कार आने से मना कर देंगे ?
    उपनाम के आधार पर ही संस्कृति और संस्कार निर्धारित होते हैं ?

    लगता है, हमलोग एक्सरसाईज़ करने वाली साइकिल पर सवार होकर पैडल मार रहे हैं, चक्का भी तेज़ी से घूम रहा है, लेकिन साइकिल जस-की-तस खड़ी है।

    सटीक कहा है ... बहुत बढ़िया पोस्ट फुरसत में ..

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  22. लगता है, हमलोग एक्सरसाईज़ करने वाली साइकिल पर सवार होकर पैडल मार रहे हैं, चक्का भी तेज़ी से घूम रहा है, लेकिन साइकिल जस-की-तस खड़ी है…………सटीक विश्लेषण किया है।

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  23. Naam aur upnaam,dono hee me bahut kuchh rakha hai,ye mera vichar hai! Khaas karke naam me....lekin apne khudke liye....auron ke nahee!

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  24. janab vo upnaam poochh rahe to theeke hi to kar rahe hain...aajkal log apne gharo me insaan ki bajaye jaanwaro ko jyada pyar aur dhyan dete hain aur unke naam bhi insano k naam par rakh dete hain. isliye upnaam se kam se kam pata to chalta hai na ki insaan hi hai koi. (ha.ha.ha.)

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  25. नाम की आवश्यकता परिचय के लिए तो आवश्यक है। उपनाम की चर्चा जिस सन्दर्भ में हुई है, सार्थक है। सलिस भाई के पास कुछ न कुछ कहने के लिए अलग अंदाज रहता है और बहुत ही सटीक उदाहरण देते हैं।
    मैं उनकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ। साधुवाद।

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  26. फ़ुरसत में गहन चिंतन किया है आपने। यह एक सामाजिक सच्चाई है। नकारा भी तो नहीं जा सकता। चलिए हम तो संतोष करते हैं कि हमारे नाम के आगे भी उपनाम जाति सूचक नहीं है।

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  27. up nam ka ki khai itni gahri ho chuki hai ki ab poore desh me yh jahar fail kr desh ke loktantr ki aatma ko chat raha hai

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  28. सब कुछ छोड़ सकते हैं परन्तु उपनाम नहीं. फिर आरक्षण में भी समस्या हो सकती है. वैसे भगवान के उपनाम भी ठीक हैं इसके बारे में भी सोचा जा सकता है.

    गंभीर चिंतन.

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  29. जाति का बोध हो तभी तो न उस पर उस पर वैसे विचार किया जाये,
    खाली इंसान होना किसी के गले कैसे उतरे और फिर गाँव में !

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  30. अरे ये पोस्ट कैसे छूट गई न जाने..
    उपनाम में वाकई बहुत कुछ रखा है. हमें अपनी बिटिया का भी नहीं रखा था.परन्तु फिर कहीं आने जाने में एयर पोर्ट पर इसकी वजह से अतिरिक्त पूछताछ होने लगी.अंतत: हमने उसके नाम के आगे एक सरनेम जोड़ना ही बेहतर समझा.सच कहा आपने हम खड़ी साइकिल पर पैडल मार रहे हैं.

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  31. नाम में उपनाम ढूंढना यूँ तो ठीक नहीं लगता , पर यदि आरक्षण लेना- देना है तो आखिर ढूंढना तो होगा...
    भगवान् के उदाहरण सटीक दिए आपने !
    गीता पर उपजे विवाद पर कुछ माननीय नेताओं की प्रतिक्रिया बताती है कि घोषित रूप में ना सही , मन ही मन उन्होंने तो भगवान् को भी बांटा हुआ है जातियों में :)

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