सोमवार, 21 मार्च 2011

लघु कथा : दूसरी गलती

लघुकथा : दूसरी गलती

-- सत्येन्द्र झा


साइकिल कार से सट गयी थी। कार को तो कुछ नहीं हुआ मगर साइकिल के परखच्चे उड़ गए थे। साइकिल की यह पहली गलती थी कि उसे उसकी औकात याद नहीं रही।


टूटी हुई साइकिल जाने लगी न्याय के लिए। यह उसकी दूसरी गलती थी।


(मूल कथा मैथिली में "अहींकें कहै छी" में संकलित 'दोसर गलती' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)

16 टिप्‍पणियां:

  1. टूटी हुई साइकिल जाने लगी न्याय के लिए। यह उसकी दूसरी गलती थी.

    बहुत कम शब्दों में बिगड़ी हुई न्यायिक व्यवस्था पर चोट करती दमदार लघुकथा.

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  2. बेहद संश्लिष्ट कथा। इसे सूक्ष्म कथा कहें तो बेहतर रहेगा।

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  3. आज के युग में आम आदमी की हकीकत है यह। उसे अपनी अवमानना और अपने अधिकारों के मानमर्दन के साथ ही जीना होता है सायकिल की तरह, एक पर एक गलती करते हुए।

    बहुत सुन्दर,

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  4. सच है, गरीबों के लिए कोई न्याय नहीं है !

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  5. बेचारी साईकिल ....एक आम आदमी जैसी किस्मत.

    अच्छी कथा

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  6. यही नियति है साइकिल की...दुर्भाग्यवश..
    सटीक लघुकथा.

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  7. ग़लतियां करने की ठीका तो आम आदमी ने ही ले रखा है, खास आदमी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

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  8. आम आदमी का जीवन दर्शन कराती प्रशंसनीय लघुकथा।

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  9. थोड़े शब्दों मे बहुत कुछ कह गए आप .....
    शुभकामनायो के साथ
    मंजुला

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  10. इसे एक सूत्र कहना अधिक अच्छा होगा, कथा नहीं। कथा के अंग इसमें आ नहीं सके हैं। इसलिए इसे किसी भी प्रकार की कहीनी कहना असंगत होगा।

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  11. बेहद करारी चोट की है सामाजिक असमानता और पक्षपाती न्याय व्यवस्था पर !

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