सोमवार, 5 अप्रैल 2010

शिकार

शिकार

-- बीना अवस्थी

नीरज वर्षों पहले बिछुड़े अपने पुराने मित्रों के बीच था। जब से नीरज ने यह शहर छोड़ा है, आज पहली बार दुबारा आना हो पाया है। सच तो यह है कि वह यहां आना ही नहीं चाहता था, परन्तु इसी शहर में ब्याही उसकी छोटी बहन बेहद रुष्ट थी। भइया, आपको मुझसे अधिक अपना काम प्यारा है। अपनी व्यस्तता के समक्ष आपके लिये सारे सम्बन्ध गौण हो गये हैं। आप न तो अपनी भानजी को देखने आये और ना ही उसके नामकरण पर आये। मैं आपके बहनोई को कैसे समझाऊँ? अब मैं मायके तभी आउँगी जब पहले आप यहाँ आएंगे।फोन पर बहन का उलाहना सुनकर और शीघ्र आने का आश्वासन देने के बावजूद आज छह महीने बाद बड़ी मुश्किल से तीन दिन के लिये आ पाया है।

उसके आने की खबर सुन बहन खुशी से पागल सी हो गई। इकलौती बहन का सुखी दाम्पत्य स्मृति में आते ही नीरज को अपने एकाकी जीवन का स्मरण हो आया। भवुकता में दो बूंद आँख में आने को हुईं। उसने तुरत अपने को संयत किया। गम्भीर स्वभाव के बहनोई बोलते कम थे परन्तु उनके व्यवहार में झलकता प्रेम और आदर नीरज को हमेशा सन्तुष्ट करता आया है।

तुम साथ दो तो अपना एक काम आसानी से हो जायेगा।

मैं यहाँ कोई ऐसा-वैसा काम करके झंझट में नहीं पड़ना चाहता।

तुम्हें कुछ ज्यादा नहीं करना है, केवल अपने शिकार को पीछे से गोली मारनी है। सिविल लाइन्स वैसे भी सूनसान रहता है, फिर गर्मी में तो पक्षी भी बाहर नहीं निकलते हैं। तुम अपना काम करके चले आना, बाकी हम लोग सम्हाल लेंगे।

चलो, इतना सा काम तो मैं आसानी से कर सकता हूँ।हँस पड़ा नीरज। यहाँ आने का खर्चा निकल आयेगा। लेकिन, मैं इन्तजार नहीं कर सकता, मुझे अपना हिस्सा तुरन्त चाहिये।

जैसा तुम चाहोगे वही होगा, शाम को यहीं मिलेंगे।

और सचमुच आज दोपहर को उसे अपना काम पूरा करने में कोई परेशानी नहीं हुई। पान की दुकान पर उपस्थित उसके मित्रों ने इशारा किया। स्पीडब्रेकर पर स्कूटर की गति धीमी हुई, .....धांय.....धांय.....की दो आवाज और......बस उसका काम खत्म। पेड़ के पीछे से निकलकर वह सीधे कदमों से विपरीत दिशा की ओर बढ़ गया, बिना किसी उत्तेजना व तनाव के। वैसे उसका काम कुछ खास था भी नही, सिर्फ ट्रेगर पर उँगलियों का दबाव बढाना था।

कामयाबी की खुशी में झूमता नीरज बहन के लिये साड़ी, डायमंड का नेकलेस सेट, बहनोई के लिये गले की चेन, हीरे की अंगूठी, गुड़िया के लिए ढेरों खिलौने, कपड़ों से लदा-फंदा घर के लिए चल पड़ा। आज की सारी कमाई उसने ख्रर्च कर डाली थी। बेहद खुश था वह। बहन पर लाल रंग बहुत खिलता है। अपने सामने सारी चीजें पहनाकर देखेगा। गुड़िया तो शायद सो गई होगी। एक विशेष चीज जो उसने बहुत साध से बहन के लिये खरीदी थी, जिसका दिन में कम से कम एक बार स्पर्श करके बहन उसे याद करने पर विवश होती - वह थी हीरे के छोटे-छोटे कणों से जगमगाती सिन्दुरदानी।

रास्ते भर थ्री व्हीलर की सुस्त चाल पर वह झुंझलाता रहा। थ्री व्हीलर रुका तो चौंक उठा नीरज। घर पर इतने सारे लोगों की भीड़। सबने उसे चुपचाप रास्ता दे दिया। क्या हुआकहता हुआ हड़बड़ाहट में वह कुछ सामान थ्री व्हीलर पर ही छोड़ तेज कदमों से अन्दर आया। कमरे में घुसने से पहले ही चीखती हुई बहन आकर उससे लिपट गई- ‘भइया मेरा सर्वस्व नष्ट हो गया। सुबह भेजते समय क्या जानती थी कि दुबारा इन्हें कभी नहीं देख पाउँगी, तुम्हीं बताओ मैं क्या करुँ..............

लेकिन रोती- बिलखती बहन के क्रन्दन का एक भी शब्द नीरज के कानों तक नहीं पहुँच रहा था। वह तो फटी आँखों से उस अभागे इन्सान को देख रहा था जो सुबह उसका शिकार था। अन्तर इतना था कि सुबह लू से बचने के लिये उसने सिर और मुँह को सफेद तौलिये से ढक रक्खा था। हाथ से गिरे डिब्बों से निकली लाल साड़ी और सिन्दुरदानी उसके पैरों के पास पड़े उसे निहार रहे थे।

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7 टिप्‍पणियां:

  1. बुराई को अपने-पराये की पहचान नहीं होती.......... बल्कि यह अपने को ही पहले लीलती है ! वीभत्स सत्य का उदघाटन संतुलित शैली में.... ! कथा में रोचकता चरमोत्कर्ष तक है और फिर एक करुण चीत्कार सा उठ जाता है हृदय में !!! लेखिका की कलम को सलाम ! ब्लॉग पर अभिनन्दन....... सुदीर्घ सहयोग की अपेक्षा.... और इस मर्मभेदी रचना के लिए धन्यवाद !!!

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