शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

त्याग पत्र -- 27

पिछली किश्तों में आप पढ़ चुके हैं, "राघोपुर की रामदुलारी का परिवार के विरोध के बावजूद बाबा की आज्ञा से पटना विश्वविद्यालय आना ! रुचिरा-समीर और प्रकाश की दोस्ती ! फिर पटना की उभरती हुई साहित्यिक सख्सियत ! गाँव में रामदुलारी के खुले विचारों की कटु-चर्चा ! शिवरात्रि में रामदुलारी गाँव आना और घरवालों द्वरा शादी की बात अनसुनी करते हुए शहर को लौट जाना ! फिर शादी की सहमति ! माधोपुर से बारात चल पड़ीं है ! अब पढ़िए आगे !! -- करण समस्तीपुरी

जलवासे पर स्वागत भक्ति के बाद बारात चलती है दरवाजा लगाने। अह्हा... बैंड वालों ने भी लाल-पीला ड्रेस कस लिया है। ओह तेरे की... सर पे पंखी लगा टोप भी है। सबसे पहले डंके वाला चोट करता है, "ढन...ढन...ढमाक.... ! फिर बड़ा धुतहू वाला... पें...पें... पें.... ! फूलों से सजी गाड़ी में दुल्हे राजा कुछ कुटुंब और सहबाला के साथ सवार होते हैं। पूरा टोला घुमा कर बारात को दरवाजे पर ले जाने की योजना है। बैंड के धुन पर बारात में आये छैल-छबीले युवक मंडली के कदम थिड़क-थिड़क कर बढ़ रहे हैं।

शिवाला तक आते-आते बारातियों का नाच एकदम शबाब चढ़ जाता है। अचानक बैंड की धुन भी बदल जाती है। अभी तक "आज मेरे यार की शादी है...!" बजा रहे भोंपू से "मेरी प्यारी बहनिया... बनेगी दुल्हानिया.... !" के स्वर गूंज जाते है। ओह... अब तो बारातियों के साथ सराती लड़के भी अपना नृत्य कौशल दिखा रहे हैं। अरे... वो गुलाबी टाई वाला तो दुलहे का दोस्त हैं न... ? वह बैंड-मास्टर के कान में कुछ कह रहा है। पी...ई...ई...ई...ई....ई...ई... ! ओह्हो.... नागिन धुन.... ! तो ये थी बारात की फरमाइश ! अब बाराती-सराती लगे दोनों हाथों को जोड़ कर सर के ऊपर लहरा-लहरा के नाचने। अरे किसी ने लक्ष्मण को भी खींच लिया बीच में। आहि भाला के.... अरे एक बराती तो पीठ के ब़ल लेट कर छट-पट-छट-पट कर नाच रहा है.... ।
शिवाला से ठाकुर जी की हवेली तक चंदोवा लगा है। चांदोबा के अन्दर बीच में दुल्हे राजा की गाड़ी और आगे-पीछे से दोनों तरफ लोग चीटी की तरह खिसक-खिसक कर बढ़ रहे हैं। दरबाजा आ गया.... ! बैंड वाले ने फिर से धुन बदला, "बहारों फूल बरसाओ... मेरा महबूब आया है..... !"

बाबू प्रजापति ठाकुर की हवेली तो आज अलकापुरी की तरह सजी है। सतरंगे प्रकाशों वाली बिजली की ऐसी कलाबाजी दिखाई गयी है कि भोले-भाले ग्रामीण को बिन बादल इन्द्रधनुष का भ्रम हो जाए। कोठी के झरोखे से युवतियां झाँख रही हैं। बाहर जितनी हल-चल है उस से कम आँगन में भी नहीं। शोर-गुल को चीरते हुए लाल-काकी की आवाज़ आती है, "ऐ कहाँ गयी रामदुलारी की अम्मा.... ! अरे दामाद जी आ गए द्वार पर। चलो परिछन करो... ! ऐ कोनैला वाली... अरे डाला उठाओ ! ऐ छोटकी... आरती सजाओ... !"
"चलो सखी ! परिछन करने को रथ चढ़ रघुवर आयो हैं.... !" मंगल आरती गाते हुए नारी वृन्द दुल्हे को परिछती हैं। पहले आरती फिर गलसेंदी। सबसे पहले उर्मिला देवी ने पान के पत्ते को आरती की लौ दिखा कर दुल्हे राजा के गालों की सेंकाई की। फिर परतापुर वाली काकी, फिर छोटकी चाची, बुआ, मामी और मौसी... ! रस्म के साथ-साथ महिलायें आपस में ठिठोली भी कर रही हैं। छोटकी चाची गीत उठाती हैं, "उतर जावें यहीं लालन... चलें पैदल लली आँगन..... !"

लेकिन दुल्हे राजा मोटर-गाड़ी से उतरें कैसे ? पहले चालाक को तो नेग दो। झट से उर्मिला देवही सारी के खूंट में बंधा मुड़ा-तुरा पचसटकिया पर एक रूपये का सिक्का रख के चालाक के हाथों में देती है... फिर दुल्हे राजा के कदम ससुराल की धन्य धरा पर पड़ती है। लक्ष्मण जीजा जी का हाथ पकड़ कर चौकोर मंच पर ले जाता है और बाराती कुर्सियां लूटने लगते हैं। अतरुआ वाली गीत शुरू करती हैं, "दरबजवे पर समधी ठाढ़े.... समधनिया को काहे न लाये.... !!"

बच्चन सिंघ बांके के साथ मंच पर लगी राजगद्दीनुमा कुर्सी पर बिराजते हैं। सरस तत्सम शब्दों में लिखा अभिनन्दन पत्र पढ़ा जाता है। फिर शीशे के ग्लासों में खस और काजू के शरबत परोसे जाते हैं। बांकें के ख़ास दोस्त पंडाल में लगी कुर्सी की फ़िक्र न कर उसके करीब ही मंडरा रहे हैं। बांके के सामने भी एक ग्लास शरबत रख दिया गया है। पर वह पीता नहीं है। बगल में खड़े लक्ष्मण को आहिस्ता से एक ग्लास सादा पानी लाने को कहता है।

कुछ ही देर में अन्दर से संक्षिप्त नारी-वृन्द का आगमन होता है वरमाला के लिए। चटकीले लाल रंग की बनारसी साड़ी में नख-शिख ढंके सलज्ज क़दमों से नुपुर की आवाज़ आ रही है। हाथों में बेला फूल का मोटा सा माला भी है। अरे यही दुल्हन है। हाँ... ! छोटकी चाची और मामी ने रामदुलारी को दोनों तरफ से पकड़ रखा है। कुछ बराती करीब आये और जो नहीं आ पाए वो इधर-उधर नजरें फेंकने लगे।

नारी समाज के साथ रामदुलारी मंच पर आ गयी है। मंगलमयी मोद से प्रमुदित और लाज से सकुचाई सुकुमारी के कोमल हाथ पुष्पमालिका के भार से काँप रहे हैं। पुरनिया वाली बुआ का गीत शुरू होता है, "सीता हाथ लिए जयमाला रामजी के गले में डालो न.... ! लाल-काकी दुल्हे को झुकने का इशारा करती हैं। लेकिन, "झुकना नहीं बांके...! अभी झुक गया तो सारी उमरा झुक के ही रहना पडेगा यार... !" बांके के दोस्तों का तुमुल नाद गूंज गया था। दोस्तों की सख्त हिदायत... लेकिन कितने भी अकड़ें झुकना तो पड़ेगा ही।
ये लो... अतरुआ वाली ओझाइन ने ऐसी चुटकी मारी कि दुल्हे के दोस्त हँसते हँसते लोट-पोट। चाची ने मौका देखा। दुल्हे के कंधे से जैसे ही तिरहुतिया हथेली सटी बेचारे नतमस्तक हो गए। पहले रामदुलारी ने बांके को माला पहनाया। फिर बांके ने रामदुलारी को। वरमाला के बाद महिलायें आँगन को जाती है और इधर होती है, दुल्हे के परिकावनि की रस्म !


मिथिलांचल में कहावत है, 'विवाह से विध भारी.... !" आँगन में विवाह के विध की तैय्यारी चल रही है थोड़ा सब्र कीजिये और लीजिये मिथिला की परिणय समारोह का आनंद इसी ब्लॉग पर अगले हफ्ते !!

8 टिप्‍पणियां:

  1. कहानी अपने अह्म मुकाम पर पहुंच रही है। अगले अंक के इंतजार में।

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  2. agalee kadee kee pratiksha shuru........
    Parichan=?
    nyochavar kya...?

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  3. dhanyawaad.... aap teen dhairyawaan paathkon ka.. !

    @ Apanatva,
    hamaare mithilaanchal me dwaar par dulhe kee arti kar swaagat karte hain.... ise hee parichhan kaha jata hai !!!
    Aapkee tippani hamesha hausala badhaatee hai.... dhanyawaad !!!

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  4. wonderful post !...Beautifully written.

    Such posts make history.

    Coming generation, who are living outside India, will learn, enjoy, feel and live the occasion through such posts.

    Divya

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  5. Namaste sir mere villa.me ek ladki ki sadi 05/05/13 ko hai main chanta hu ki aap mughe hindi me koi aacha sa abhinandan patra likh kar bheje ya aeisa koi wapside hai jisme abhinandan patra likha ho.aap ka bahut maherbani hogi mugh par.mera email-kundankumarkoshal@gmail.com

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