गुरुवार, 25 मार्च 2010

चौपाल : आंच पर कवि-कर्म और आलोचक धर्म

ऑच-9

-आचार्य परशुराम राय

ऑच के अब तक आठ अंक निकल चुके हैं। इस पर पाठकों की अब तक मिली-जुली प्रतिक्रियाओं ने हमें इस अंक को लीक से हटकर लिखने के लिए प्रेरित किया। इस स्तम्भ द्वारा इस ब्लाग पर आयी रचनाओं के माध्यम से साहित्य के प्रति अपनी समझ के अनुसार स्तम्भकारों का उद्देश्य उनके गुण-दोषों पर शास्त्र एवं लोक सम्मत विचारों से पाठकों को अवगत कराना था। इसका दूसरा उद्देश्य था - अनजाने में आयी साहित्यिक कमियों को उद्धृत कर उनके रचनाकारों को सजग करना। अन्तिम उद्देश्य था साहित्य के विद्यार्थियों को रचना की भावभूमि पर पहुँचने का रास्ता बताना। इसके अतिरिक्त हमें एक लोभ यह भी था या यों कह लीजिए कि अपेक्षा थी कि साहित्य का कोई मर्मज्ञ भूले-भटके ब्लाग के इस स्तम्भ पर नजर डालकर हमारा मार्ग-दर्शन करे। हम अपने उद्देश्यों और अपेक्षाओं में कितने सफल हुए हैं, इसका मापदण्ड इस स्तम्भ पर आयी आप सहृदयों की प्रतिक्रियाएँ हैं।

आलोचक का धर्म बड़ा कठिन होता है। क्योंकि तुलसीदास जी जैसा आर्ष कवि कहता है-

निज कवित्त केहि लाग न नीका।

सरस होंहि अथवा अति फीका।।

हो सकता है कि कुछ पाठकों को ऑच के स्तम्भकारों की समीक्षात्मक दृष्टि पसंद न आयी हो। लेकिन समीक्षक या आचोलक रचना के केवल दोषों को ही नहीं, बल्कि गुणों को भी प्रकाशित करता है। हर रचना में गुण और दोष विद्यमान रहते हैं। यहाँ तक कि अर्थ गौरव के धनी महाकवि भारवि का सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य ‘किरातार्जुनीयम्’ भी पूर्णतया अदोष नहीं है। फिर भी रचनाकार का हर सम्भव प्रयास होना चाहिये कि उसकी रचना पूर्णरूपेण दोषमुक्त भले ना हो, लेकिन दोषों कि बहुलता न हो।

इस अंक का उद्देश्य काव्य के गुण-दोष का विवेचन नहीं है, इसे भारतीय काव्यशास्त्र स्तम्भ पर समय आने पर आप स्वयं देख सकेंगे। यहाँ हम केवल समीक्षक अथवा आलोचक के धर्म पर थोड़ी चर्चा करेंगे। आलोचना का उद्देश्य किसी रचनाकार का पक्षधर होना अथवा विरोधी होना नहीं है, बल्कि उसकी रचना के गुण-दोषों का सम्यक विवेचन होता है। जो लोग ऐसा नहीं कर पाते और केवल विरोध के लिये विरोध करते हैं अथवा गुट बनाने के लिये पक्षधर हो जाते हैं, वे आलोचक नहीं हो सकते। जो केवल पूर्वाग्रहग्रस्त होकर विरोध करते हैं, उनके लिए महाकवि एवं नाटककार भवभूति लिखते हैं-

यथा स्त्रीणां तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनो जनः

अर्थात् लोग जैसे स्त्रियों की पावनता के प्रति सदा शंकाशील होते हैं वैसे ही वाणी के प्रति (कवियों के काव्य के प्रति) भी सदा दोष दृष्टि रखते हैं।

साथ ही आलोचक को यह भी ध्यान देना पड़ता हैं कि लौकिक काव्यों में ही गुण-दोषों का विवेचन सम्भव है, आर्ष-काव्यों में नहीं। इस सन्दर्भ में महाकवि भवभूति के “उत्तररामचरितम्” का ही एक बहुत ही आकर्षक श्लोक उद्धृत किया जा रहा है-

लौकिकानां हि साधूनामर्थं वागनुवर्तते।

ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति।।

अर्थात् लौकिक साधुजन की वाणी अर्थ का अनुसरण करती है (अर्थात् वे कार्यकारण आदि सम्बन्धों को ध्यान में रखकर वाणी (भाषा) का प्रयोग करते हैं), जबकि ऋषियों की वाणी अर्थात् भाषा का अनुसरण अर्थ स्वयं करता है।

ऋषियों की प्रतिभा अलौकिक होती है। इसलिए हो सकता है कि उनकी वाणी में लोक सम्मत प्रयोग न मिलें, जैसे- संत कबीर की कुछ पंक्तियाँ यहाँ द्रष्टव्य हैं-

नइया बीच नदिया डूबी जाय।

अर्थात् नाव के बीच में नदी डूब रही है।

पकड़ बिलार को मुरगे खाई।

अर्थात बिल्ली को मुर्गा खाता है।

उक्त प्रयोग लोक व्यवहार के विपरीत हैं। संसार में नाव नदी में डूबती है और बिल्ली मुर्गा को पकड़कर भक्षण करती हैं। यहाँ संत कबीर की भाषा का अनुकरण अर्थ करता हैं। नाव हमारे जीवन का प्रतीक है और नदी भवसागर है। जब मनुष्य साधना द्वारा अपने जीवन का इतना विराटीकरण कर लेता है अर्थात् सार्वभौमिक सत्ता से एक हो जाता है, तो भवसिन्धु उसमें डूब जाता है, समाहित हो जाता है। इसी प्रकार बिल्ली मृत्यु का प्रतीक है और मुर्गा जीव का। मनुष्य साधना द्वारा मृत्यु से परे अर्थात् समयातीत हो जाता है। उस अवस्था का वर्णन करते हुए सन्त कबीर कहते हैं कि बिल्ली को पकड़कर मुर्गा खा गया।

लेकिन उक्त स्थिति लौकिक प्रतिभा के धनी व्यक्तियों के साथ लागू नहीं होती। ये अर्थ को दृष्टि में रखकर ही भाषा का प्रयोग करते हैं।

ऐसे ही लौकिक प्रतिभा सम्पन्न कवियों, महाकवियों की नवरसरुचिरा वाणी अर्थात् काव्य का परिशीलन करते हुए काव्य विचारक आचार्यों ने काव्य के विभिन्न अंगों का विवेचन किया, जिसे हम काव्यशास्त्र या साहित्यशास्त्र के नाम से जानते हैं। काव्यशास्त्र साहित्य का व्याकरण है और जब काव्य रचना के प्रति प्रवृत्ति हो, तो काव्यांगों का ज्ञान आवश्यक है।

काव्य से निस्सृत रस को ब्रह्मानंद सहोदर कहा गया हैं। जिसका उत्स विभावों, अनुभावों और व्याभिचारी भावों का संयोग है-

विभावानुभावव्याभिचारीभावसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः। (आचार्य भरत)

इस रस को यंगिस्तान की पेप्सी के नाम से नहीं बेचा जा सकता। उसके लिए शास्त्रानुशीलन आवश्यक है। आचार्य मम्मट काव्य का हेतु बताते हुए कहते हैं-

शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात्।

काव्यज्ञशिश्राभ्यास इति हेतुस्तदुभ्दवे।।

अर्थात् कवि में निहित स्वाभाविक प्रतिभारूप शक्ति, लोकव्यवहार, शास्त्र तथा काव्य आदि के पर्यालोचन से उत्पन्न निपुणता और काव्यज्ञों के सान्निध्य में काव्य लेखन का अभ्यास, ये तीनों मिलकर समष्टि रुप से काव्य रचना का हेतु अर्थात कारण हैं। संक्षेप में कहना चाहिए कि जिस प्रकार विभाव, अनुभाव और व्याभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है, वैसे ही शक्ति, निपुणता और अभ्यास के संयोग से उत्तम काव्य की रचना होती है।

कारण के अभाव में कार्य सम्भव नही है। अतः जो काव्य-प्रणयन में प्रवृत्त होना चाहते हैं, उन्हें अपनी प्रतिभा के साथ शेष दो घटकों को भी आत्मसात करना होगा। अन्यथा ब्रह्मानंद सहोदर के नाम पर लोगों को यंगिस्तान की पेप्सी ही पीने को मिलेगी और शुद्ध जीवन रुप जल के लिए सहृदयों की पिपासा को यह पेप्सी शांत नहीं कर सकती। इति।।

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10 टिप्‍पणियां:

  1. साहित्य के विकास में आपका ये प्रयास सराहनीय है।

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  2. आलोचना में मूल्य-निर्धारण होना चाहिए, मूल्यांकन होना चाहिए।

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  3. सही कहा आपने. समीक्षा का भी अपना धर्म है- तटस्थ और गुण-दोषों सहित सम्यक मूल्यांकन. साथ ही इसका महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि समीक्षा वस्तुपरक हो न कि व्यक्तिपरक कि अमुक व्यक्ति हमारे गोल का नहीं तो उसके कर्म में दोष ही दोष ढूढ लें. इसके अभाव में निरपेक्षता और मूल्यांकन की सत्यता कैसे सुनिश्चित हो सकेगी. आग्रहों के सभी चश्में हमें अलग रखने होंगे.

    विशद विवेचन के लिए राय जी को धन्यवाद.

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. 'नरत्व दुर्लभं लोके....... वाणी तत्र सुदुर्लभा............. और वाणी में प्रभाव तो और दुर्लभतर है ! 'दर्द को दिल में जगह दे अकबर ! इल्म से शायरी नहीं आती !!'...... बहुत खूब इलाहाबादी साहब !! शायरी तो सच में नितांत अंतर्भूत है. कल्पना का उद्दाम प्रवाह है........... लेकिन इल्म से शायरी में असर तो आ ही सकता है !! काव्य का हेतु एक बार फिर समझ कर आह्लादित हूँ !! "लोचन" से विकसित 'आलोचना' के क्रम में 'आलोचक की' दृष्टिपथ में जो विम्ब आते हैं उसका वैसा ही प्रतिविम्ब वह प्रस्तुत करता है ! आलोचना की आंच पर चढ़े बिना रचना की परिपक्वता......... आ सकती है... मेरे ख्याल से तो संदिग्ध है !! एक स्वतंत्र आलोचक का मार्ग कितना कठिन होता है..... कुछ खबर तो है मुझे किताबों से ! शास्त्रीयता की कसौटी पर कसे या लोक-व्यवहार की कसौटी पर ! पुनः एक ही विषय पर विभिन्न आचार्यों के अनेक मत........ किसका अनुसरण करे....... इन सभी से एक सामान्य माध्यम मार्ग बनाते हुए आलोच्य रचना पर वह अपना मंतव्य व्यक्त करता है !
    आपके लेखन में साहित्यकार के अतिरिक्त एक शिक्षक की शैली निहित है ! 'अंतर हाथ सहार दे.... बाहर मारे चोट !' हर बार बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है और स्मृति पर पड़ीं धुल भी साफ़ होती जाती है !! कोटिशः धन्यवाद !!!

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  6. सद्प्रयास सफल हो...
    आलेख ने मन आनंदित कर दिया...आभार..

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