रविवार, 27 सितंबर 2009

या देवी सर्वभूतेषु … … मनोज कुमार



या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता ! नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:!!
हे देवी तुम शक्ति रूप हो। जो देवी सब प्राणियों में शक्तिरूप से स्थित हैं,
उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारंबार नमस्कार है।


हम सभी जानते हैं कि कहीं न कहीं कोई शक्ति अवश्य है जो ब्रह्मांड का संचालन करती है। प्रत्येक वर्ष आश्‍विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक हम शारदीय नवरात्र मनाते हैं। यह पर्व है असत्य पर सत्य की, अधर्म पर धर्म की, अत्याचार पर सदाचार की विजय का।
एकबार देवताओं के राजा इन्द्र तथा राक्षसों के राजा महिषासुर में वर्षों तक घोर युद्ध हुआ। इस लड़ाई में इन्द्र की हार हुई। फलस्वरूप महिषासुर इन्द्रलोक का राजा बन बैठा।
हारे हुए देवतागण ब्रह्माजी के साथ भगवान शिव एवं विष्णु के पास गए। उन्होंने अपने दुख, अपनी हार एवं राक्षसों के अत्याचार की व्यथा सुनाई। साथ ही यह भी निवेदन किया कि उनका राज्य वापस लाने का उपाय किया जाए।

देवतागणों की व्यथा कथा सुन भगवान शिव एवं विष्णु को काफी क्रोध आया। भगवान विष्णु के मुख एवं ब्रह्मा, शिव और इन्द्र के शरीर से एक ज्योतिपुंज निकला। इस ज्योतिपुंज से सभी दिशाएं जलने लगी। अंत में यही तेज एक देवी के रूप में बदल गया। इस देवी ने सभी देवी-देवताओं से अयुध, शक्ति और आभूषण प्राप्त किया। सारे अस्त्र-शस्त्रों से लैस होकर देवी ने उच्चस्वर से अट्टहास किया। उनके इस अट्टहास से पृथ्वी आदि डोलने लगे। देवी की यह गर्जना महिषासुर तक पहुंची। सचेत होकर महिषासुर ने राक्षसों की सेना का व्यूह बनाया। फिर वह उस सिंहनाद की ओर दौड़ पड़ा। उसने अपनी सारी शक्ति, छल, बल, लगा दिया परन्तु वह देवी के ऊपर कोई प्रभाव नहीं जमा सका। अंत में देवी के साथ युद्ध में न सिर्फ उसकी पराजय हुई बल्कि देवी के हाथों उसकी मृत्यु भी हुई।

आगे चलकर शुम्भ तथा निशुम्भ नामक अत्याचारी असुरों का बध करने के लिए देवी माता गौरी के शरीर से उत्पन्न हुई। एक दिन देवी हिमालय पर विचर रहीं थीं। शुम्भ निशुम्भ के अनुचरों ने उनके परम मनोहर रूप को देखा तो काफी प्रभावित हुए। उन्होंने जाकर अपने राजा को बताया कि एक अद्भुत दिव्य कांति वाली देवी हिमालय पर हैं। इस देवी का वरण कीजिए। दैत्यराज शुम्भ ने देवी के पास विवाह का प्रस्ताव भेजा। देवी ने इसे ठुकरा दिया और कहा कि जो युद्ध में मुझको पराजित करेगा वही मुझको वरण कर सकता है।

अनुचर के द्वारा यह वृतांत सुनकर शुम्भ काफी कुपित हुआ और उसने अपने सेनापति धुम्रलोचन से देवी को बलपूर्वक पकड़कर लाने को कहा। धुम्रलोचन जब देवी के सामने पहुंचा तो देवी ने अपने हुंकार से उसे भस्म कर डाला। उसके साथ आई सेना को उनके सिंह ने चीड़-फाड़ डाला।

यह देख कर शुम्भ ने देवी को पराजित कर पकड़ लाने के लिए चण्ड और मुण्ड को भेजा। चण्ड-मुण्ड ने विशाल सेना लेकर देवी से युद्ध किया। देवी विकराल रूप धारण कर उनकी सेना पर टूट पड़ीं। देवी के प्रहारों के समक्ष वे टिक न सके। देवी ने चण्ड-मुण्ड का वध कर डाला।

यह समाचार सुन शुम्भ के क्रोध की सीमा न रही। सेना लेकर वह स्वयं ही युद्ध हेतु प्रस्थान कर गया। शुम्भ की सेना को देख देवी ने धनुष की प्रत्यंचा से ऐसा टंकार निकाला कि पृथ्वी और आकाश गूंज उठा। राक्षसों के संहार और देवताओं की रक्षा के लिए देवी के शरीर से सभी देवी-देवताओं की शक्तियां अलग-अलग रूप में प्रकट हो गईं साथ ही देवी के शरीर से महादेव की कृपा और आदेश से बड़ी भयानक और उग्र चंडिका उत्पन्न हुई। शक्ति के मद में चूर दैत्य समूह ने देवी के रूप और शक्ति की परवाह नहीं की और युद्ध करने लगे। देवी के समक्ष असुर अधिक देर तक टिक नहीं सके।

बहुत से राक्षस देवी के प्रहार के सामने काल को ग्रसित हो गए। दैत्यें की पराजित होती अवस्था देख महादैत्य रक्तबीज सामने आया। रक्तबीज गदा लेकर इन्द्रशक्ति से युद्ध करने लगा। देवी के वारों से उस राक्षस के शरीर से जहां-जहां रक्त गिरता, वहां-वहां एक नया रक्तबीज पैदा हो जाता। यह देखकर देवताओं में खलबली मच गई। सभी देवता भयभीत हो गए। यह देख कर कि सभी देवता भयभीत हैं, चंडिका ने काली (चामुंडे) से कहा, “तुम अपना मुख फैलाकर युद्ध क्षेत्र में विचरण करो और मेरे शस्त्रों के प्रहार से गिरने वाले रक्त बूंदों को पी जाओ तथा उनसे उत्पन्न दैत्यों का भक्षण करती रहो। इस प्रकार दैत्यों का रक्त क्षीण हो जायेगा और राक्षस उत्पन्न नहीं हो पाएंगें”।

यह आदेश देकर चंडिका ने शूल से रक्तबीज पर प्रहार किया। उसके शरीर से निकलने वाले रक्त को काली ने मुंह फैलाकर पी लिया। रक्तबीज देवी पर प्रहार तो करता पर उसका देवी पर कोई असर नहीं पड़ता। इस प्रकार देखते-देखते उसकी शक्ति क्षीण होती चली गई और रक्तबीज का अंत हो गया।

इस खबर से जहां एक ओर देवताओं में हर्ष का सैलाव उमड़ पड़ा वहीं दूसरी ओर शुम्भ-निशुम्भ के क्रोध की सीमा नहीं रही। वे दैत्यों की विशाल सेना लेकर देवी से युद्ध करने को चल पड़ा। पर देवी दे उन दोनों को भी युद्ध में पराजित कर उनका संहार कर दिया। सभी राक्षस मारे गए। सारे संसार में सुख शांति व्याप्त हो गई।

इसी विजय के उपलक्ष्य में हम विजयादशमी का पर्व मनाते हैं। साथ ही इस दिन भगवान रामचन्द्र जी चौदह वर्ष का वनवास भोगकर तथा रावण का वध कर लंका पर विजय पताका फहराकर अयोध्या लौटे थे, इसलिए भी इस पर्व को विजयादशमी के रूप में मनाते हैं।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया लिखा है आपने! आपकी लेखनी को सलाम! विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें!

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  2. या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता ! नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:!!

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